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मंगलवार, 24 दिसंबर 2019

मंत्र साधना विधि क्रम

मंत्र साधना विधि क्रम

प्रत्येक मंत्र साधक को, मंत्र साधना में सामान्यतया जो विधि अपनाई जाती है, उसकी कुछ विशेष एवं मूलभूत क्रियाओं को ध्यान में रखना अत्यंत आवश्यक है।
मंत्र साधना विधि क्रम
मंत्र साधना विधि क्रम

ये विधि-क्रम निम्न प्रकार से हैं

1- जिस स्थान पर मंत्र साधना की जाने वाली हो,वह अत्यंत पवित्र, शुद्ध व स्वच्छ होना चाहिए, जैसे-देवस्थान, तीर्थभूमि, वनप्रदेश, पर्वत का उच्चस्थान, उपासनागह अथवा नदी का किनारा अथवा घर में एकांत, शांत (जहां कोई आवाज न पहुंचे); ऐसे स्थान पर साधना की जानी चाहिए।
2- मंत्र द्वारा जिस किसी की भी साधना की जानी हो, उसकी प्रतिमा चित्र या मंत्र को समीप रखना चाहिए।
3- साधक को यह बात सदैव ध्यान में रखनी चाहिए कि प्रत्येक मंत्र के जाप (या जप) का समय व संख्या निर्धारित होती है। उसी के अनुसार जप-क्रिया प्रारंभ करनी चाहिए और जितने समय तक जितनी संख्या में जप करना है, उसे विधिपूर्वक ही करना चाहिए, तथा इसमें अपनी सुविधानुसार कोई हेर-फेर भी नहीं करना चाहिए। 4- जिस वस्त्र को पहनकर मंत्र साधना करनी हो, वो धुला हुआ, स्वच्छ, पवित्र और बिना सिला हुआ होना चाहिए। ऐसे वस्त्र लो शरीर पर बांधा या लपेटा जाता है। साधना के समय धूप, दीप अवश्य रखना चाहिए।
 5- जब तक साधना चले, तब तक अभक्ष्य पदार्थ नहीं खाने चाहिए। इस समय में पूर्णतया ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए और बहुत साधारण-सा जीवन बिताना चाहिए।
6- मंत्रों के शब्दों, अक्षरों का उच्चारण शुद्ध व अत्यंत धीमा होना चाहिए। मन-ही-मन उच्चारण भी किया जा सकता है।
7- मंत्र की उपासना, ध्यान, पूजन और जप पूरी श्रद्धा व विश्वास के साथ करना चाहिए।
8- स्वच्छ रहना चाहिए। संभव हो तो दिन में दो बार स्नान करना चाहिए। साधना प्रारंभ करने से पूर्व
ही मल-मूत्र क्रिया का विसर्जन कर देना चाहिए।
10- साधना-स्थान पक्का हो, तो प्रतिदिन झाड़ लगाकर उसे गीले कपड़े से पोंछना चाहिए और यदि कच्चा हो, तो गाय के गोबर से लीपा-पोती करनी चाहिए।
11- नीच व्यक्तियों के साथ वार्तालाप व उनका स्पर्श नहीं करना चाहिए, इससे साधक की पवित्रता नष्ट हो जाती है। जब तक मंत्र सिद्ध न हो जाए, स्त्री (पत्नी) तक से दूर और बचकर रहना चाहिए।
12- असत्य नहीं बोलना चाहिए, क्रोध नहीं करना चाहिए और जहां तक संभव हो, सर्वथा मौन रहना
चाहिए।
13- चित्त को स्थिर रखना चाहिए।
14- भोजन एक ही समय करना चाहिए, साथ ही वो सात्त्विक व हल्का होना चाहिए। भोजन या जल ग्रहण करने से पूर्व मूलमंत्र से अवश्य अभिमंत्रित कर लेना चाहिए।
15- भूमि पर सोना चाहिए अर्थात् साधना-स्थल के समीप ही कोई कपड़ा बिछाकर सोना चाहिए तथा
अंधेरे में नहीं सोना चाहिए।
16- जब तक मंत्र की सिद्धि न मिल जाए, तब तक बाल न कटाने चाहिए, दाढ़ी-मूंछ (शेव) न बनानी या बनवानी चाहिए और मौसम चाहे जैसा हो गर्म जल से स्नान नहीं करना चाहिए।
17- कम, क्रोध, मोह, लोभ, मद, हिंसा, और असत्य से बचना चाहिए।
18- किसी को शाप या आशीर्वाद नहीं देना चाहिए।
19- अपना नित्यकर्म बराबर करते रहना चाहिए।
20-  निर्भय होना चाहिए, मंत्रदेवता की उपासना श्रद्धा, भक्ति पूर्ण विश्वासपूर्वक करनी चाहिए।

मंत्र साधकों को अब दिशा, काल, मुद्रा, आसन, वर्ण, पष्य, माला, मंडल, पल्लव और दीपनादि के विषय में भी जा और समझ लेना चाहिए, जिसकी विधि निम्न है

1- दिशा-शांतिकर्म को पश्चिम दिशा की ओर मंह करके, पौष्टिक-कर्म को नैऋत्य दिशा की ओर, मारणकर्म को ईशानाभिमुख होकर, विद्वेषणकर्म को आग्नेय की ओर, उच्चाटनकर्म को वायव्य की ओर, वशीकरणकर्म
को उत्तराभिमुख होकर, आकर्षणकर्म को दक्षिणाभिमुख होकर और स्तंभनकर्म को पूर्वाभिमुख होकर साधित करना चाहिए।
2- काल-शांतिकर्म को अर्द्धरात्रि में, पौष्टिककर्म को प्रभात में, वशीकरण, आकर्षण व स्तंभनकर्म को दिन में बारह बजे से पूर्व पूर्वाह्न में, विद्वेषणकर्म को मध्याह्न में, उच्चाटनकर्म को दोपहर बाद अपराह्न में और मारणकर्म को संध्याकाल में साधित करना चाहिए।
3- मुद्रा-शांति व पौष्टिककर्म में ज्ञानमुद्रा, विद्वेषण व उच्चाटनकर्म में पल्लवमुद्रा, वशीकरण में सरोजमुद्रा, आकर्षणकर्म में अंकुशमुद्रा, स्तंभनकर्म में शंखमुद्रा और मारणकर्म में वज्रासनमुद्रा में बैठना ही उपयुक्त रहता है।
4- आसन-आकर्षणकर्म में दंडासन, वशीकरण में स्वस्तिकासन, शांति व पौष्टिककर्म में पद्मासन, स्तंभनकर्म में वज्रासन, मारणकर्म में भद्रासन, विद्वेषण व उच्चाटनकर्म में कुक्कुटासन का प्रयोग करना चाहिए।
5- वर्ण-शांति व पौष्टिककर्म में चंद्रमा के समान श्वेतवर्ण, विद्वेषण व उच्चाटनकर्म में धूमवर्ण, मारणकर्म में कृष्णवर्ण, आकर्षणकर्म में उदय होते हुए सूर्य के जैसा वर्ण तथा वशीकरणकर्म में रक्तवर्ण ध्यातव्य है।
6-  पुष्य-शांति व पौष्टिककर्म में श्वेत रंग के पुष्प (फूल), स्तंभनकर्म में पीले पुष्प, आकर्षण व वशीकरण में लाल रंग के पुष्प, विद्वेषण, उच्चाटन व मारणकर्म में काले रंग के पुष्प प्रयोजनीय हैं।
7-  माला-शांतिकर्म में स्फटिक की माला, पौष्टिककर्म में मोती की माला, मारण, विद्वेषण व उच्चाटनकर्म में पुत्रजीवक की माला, आकर्षण वशीकरण कर्म में मूंगे की माला और स्तंभनकर्म में सुवर्ण की माला व्यवहार्य है।
विशेष-नवीन साधक इसे इस प्रकार से समझेंबगलामुखी की साधना में हल्दी की माला, विष्णु जी की उपासना में शंखमाला, गणेशजी की उपासना में हाथीदांत की माला, शिव की उपासना में रुद्राक्षमाला, मुक्तिहेतु स्फटिक की माला, शत्रुविनाश एवं धूमावती की उपासना में खरदंतमाला तथा वैष्णवों हेतु तुलसी की माला का विधान है। मालाजाप की विधि-विधान हप आगे बताएंगे।
8- हस्त-आकर्षण, स्तंभन, शांति, पौष्टिक, मारण, विद्वेषण व उच्चाटनकर्म में दक्षिण व वशीकरण में वामहस्त का प्रयोग विहित है।
9- उंगली--आकर्षणकर्म में कनिष्ठिका, शांति व पौष्टिक कर्म में मध्यमा, वशीकरण में अनामिका, स्तंभन, मारण, विद्वेषण व उच्चाटनकर्म में तर्जनी उंगली का प्रयोग किया जाता है।
10- पल्लव-विद्वेषणकर्म में "हु", उच्चाटनकर्म में "फट", आकर्षण कर्म में "वौषट्", वशीकरण में "वषट्", स्तंभन व मारणकर्म में "वे घे", और शांति व पौष्टिककर्म में "स्वाहा", इस प्रकार पल्लव समझना चाहिए।
11- मंडल-शांति व पौष्टिककर्म वरुणमंडल के बीच, स्तंभन व मोहनादि में महेंद्रमंडल के बीच और वशीकरण कर्म में अग्निमंडल के बीच चक्र व साधक का नाम रखना उत्तम है।
12- दीप व धूप-साधक को अपनी दाहिनी और दीप (दीपक) और बायीं ओर धूप जलाकर रखनी चाहिए।
13- तत्त्वध्यान-स्तंभन व पौष्टिककर्म में पृथ्वी, विद्वेषण व उच्चाटनकर्म में वायु, आकर्षणकर्म में अग्नि, वशीकरण व शांतिकर्म में जल और मारणकर्म में व्योम ध्यातव्य है।
14- दीपनादि प्रकार-दीपन से शांति कर्म, पल्लव से विद्वेषणकर्म, संपुट से वशीकरणकर्म, रोधन से बंधन, ग्रंथन से आकर्षणकर्म, विदर्भण से स्तंभन कर्म होता है।

ये छह भेद हरेक प्रकार के मंत्र में लागू होते हैं। इन्हें इस प्रकार से समझ सकते हैं

1. मंत्र के प्रारम्भ में नाम की स्थापना करें, जैसे-"धूमावती ह्रीं", इसे दीपन कहा जाता है।
 2. मंत्र के अंत में नाम की स्थापना करें, जैसे -"हीं धूमावती", इसे पल्लव कहा जाता है।
3. मंत्र के मध्य में नाम की स्थापना करें, जैसे-"हीं धूमावती ह्रीं", इसे संपुट कहा जाता है।
4. मंत्र के प्रारम्भ व मध्य में नाम का उल्लेख करें, जैसे-“धूम ह्रीं वती ह्रीं", इसे रोधन कहा जाता है।
5. एक मंत्राक्षर, दूसरा नामाक्षर, तीसरा मंत्राक्षर और चौथा नामाक्षर, इसे संकलित करें, जैसे- "हीं धू ह्रीं मा ह्रीं व ह्रीं ती", इसे ग्रंथन कहा जाता
6. मंत्र के दो अक्षरों के बाद एकेक नामाक्षर रखें, जैसे-"ह्रीं ह्रीं धू ह्रीं ह्रीं मा ह्रीं ह्रीं वे ह्री ह्रीं ती", इसे संकलित कहते हैं।

माला-जाप की विधि एवं विधान मंत्रों में निहित शक्ति को व्यक्ति मनन एवं जाप द्वारा ही प्राप्त कर सकता है। इसलिए शास्त्रों द्वारा प्रत्येक मंत्र के जाप की एक निश्चित संख्या (जैसे 108 या 10 हजार बार) निर्धारित की गई है, जिससे अभीष्ट की सिद्धि प्राप्त होती है। ध्यान रहे, मंत्र-जाप के लिए गणना अत्यावश्यक है। गणना की सुविधा तथा जाप के लिए वैसे तो तीन प्रकार की मालाओं का उल्लेख होता है, वर्णमाला, करमाला तथा मणिमाला. किन्त यहां हम विशेषतः करमाला और 'मणिमाला की ही विस्तृत चर्चा करेंगे।
करमाला-कर कहते हैं हाथ को अर्थात् हाथ की उंगलियों के पर्वो (पोरों) पर गणना करके जब जाप किया जाता है, तो उसे करमाला जाप कहते हैं। प्रत्येक हाथ में एक अंगूठा और चार उंगलियां होती हैं और प्रत्येक उंगली पर तीन पर्व होते हैं। अर्थात् चारों उंगलियों में 12 पर्व होते हैं। करमाला जाप में बड़ी सावधानी रखनी पड़ती है, तभी इसके पूर्ण फल की प्राप्ति संभव है, अन्यथा जाप निष्फल हो जाता है।
करमाला से जाप करते समय उंगलियां एक-दूसरे से पूर्णतः जुड़ी होनी चाहिए। अलग-अलग नहीं रहनी चाहिए तथा उंगलियों के मिलने पर हथेली को थोड़ा झुका लेना चाहिए। उंगलियों को विभाजित करने वाली रेखा पर तथा नखों (नाखूनों) पर जाप करने से वो निष्फल हो जाता है। तर्जनी अर्थात् अंगूठे के साथ वाली उंगली के अग्रपर्व व मध्यपर्व पर जाप करने से आयु, विद्या, यश और बल का नाश होता है। अत: इन पर्वो पर जाप सर्वथा निषिद्ध है। सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है, करमाला में जपयोग्य पर्वो का एक क्रमानुसार विधान ! पूर्ण सफलता तथा इच्छित फल की प्राप्ति के लिए उसी क्रम से हमें जप-कर्म करना चाहिए। सबसे पहले अनामिका अर्थात्
अंगुष्ठ (अंगूठा) के बाद तीसरी उंगली का मध्यपर्व, इसी का मूलपर्व, फिर कनिष्ठिका का मूलपर्व, मध्यपर्व, अग्रपर्व, फिर अनामिका का अग्रपर्व, मध्यमा का अग्रपर्व, मध्यपर्व, मूलपर्व तथा तर्जनी का केवल मूलपर्व, अर्थात् एक चक्र में करमाला से हम 10  बार मंत्र की पुनरावृत्ति कर सकते हैं। और वांछित संख्या का जाप किसी भी समय कर सकते हैं।
मणिमाला-मणियों से निर्मित माला, जिसका उपयोग विशेष कार्यसिद्धि के लिए किया जाता है और कार्य के अनुरूप माला में मनकों की संख्या एवं भिन्नता पाई जाती है।

मणिमाला से किए गए जाप दो प्रकार के होते हैं-

1. सगर्भजाप और, 2  अगर्भजाप।
प्राणायामपूर्वक जो जाप होता है, उसे सगर्भजाप कहते हैं। यह उत्तमकोटि का होता है और प्राणायाम के बिना किया गया जाप अगर्भजाप कहलाता है।

मनीषियों ने जाप के भी तीन प्रकार बताए हैं

1- मन के द्वारा बार-बार चिंतन मानसजाप कहलाता है। इसे श्रेष्ठ माना गया है।
2- ऐसा जाप जिसमें केवल जिह्वा हिलती रहे, अर्थात्उच्चारण इतने धीमे हो कि किसी दूसरे को सुनाई न दे। यह उपांशुजाप कहलाता है। इसे मध्यमकोटि का माना गया है तथा अक्षरों के साथ मंत्र का वाणी द्वारा स्पष्ट और अस्पष्ट उच्चारण वाचिकजाप कहलाता है।
 यह निम्नकोटि का माना गया है।
3- बाएं हाथ से तथा निर्धारित संख्या से कम मनकों की माला का जाप प्रयोगकाल में नहीं करना चाहिए। इस तीसरे प्रकार के जाप में "वाचिकजाप". ही आता है।

 क्रमवार इसे इस प्रकार जान लेना चाहिए- 

1- मानसजाप,
2- उपांशुजाप,
3- वाचिकजाप।
साधकगण को स्मरण रहना चाहिए कि माला को सदैव गोमुखी में छिपाकर ही जाप करना चाहिए तथा माला कभी भी किसी को दिखानी नहीं चाहिए। जहां पर माला के दोनों भाग जुड़ते हैं और गांठ लगाकर एक मनका स्थित किया जाता है, उसे सुमेरु कहते हैं। जाप में किसी भी सुमेरु का उल्लंघन नहीं करना चाहिए। अर्थात् जब जाप करते-करते सुमेरु, तक पहुंचा जाए, तो वहां से विपरीत दिशा में जाप प्रारंभ कर देना चाहिए। जाप में माला से तर्जनी का स्पर्श निषिद्ध है तथा जितना संभव हो, उतना उसे नाखूनों से भी बचाकर रखना चाहिए। मुख्य बात यह है कि जाप का समय निर्धारित होना चाहिए और उसमें कभी परिवर्तन नहीं करना चाहिए। दूसरी विशेष बात यह है कि जाप के समय माला हृदय के समीप होनी चाहिए तथा जपकाल में नेत्र मूंदकर, आज्ञाचक्र पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए।

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