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मंगलवार, 9 मार्च 2021

Kali Ekakshari Mantra purchaser vistrit Vidhan

महाकाली महिमा तथा काली एकाक्षरी मन्त्र पुरश्चरण बिस्तृत विधान 


काल अर्थात् समय/मृत्यु की अधिष्ठात्री भगवती महाकाली हैं। यूं तो श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की रात्रि योगमाया भगवती आद्याकाली के प्राकट्य दिवस के रूप में मनाई जाती है। परंतु तान्त्रिक मतानुसार आश्विन कृष्ण अष्टमी के दिन 'काली जयंती' बतलायी गयी है। जगत के कल्याण के लिये वे सर्वदेवमयी आद्या शक्ति अनेकों बार प्रादुर्भूत होती हैं, सर्वशक्ति संपन्न वे भगवान तो अनादि हैं परंतु फिर भी भगवान के अंश विशेष के प्राकट्य दिवस पर उन स्वरूपों का स्मरण-पूजन कर यथासंभव उत्सव करना मंगलकारी होता है। दस महाविद्याओं में प्रथम एवं मुख्य महाविद्या हैं भगवती महाकाली। इन्हीं के उग्र और सौम्य दो रूपों में अनेक रूप धारण करने वाली दस महाविद्याएँ हैं। विद्यापति भगवान शिव की शक्तियां ये महाविद्याएँ अनन्त सिद्धियाँ प्रदान करने में समर्थ हैं। दार्शनिक दृष्टि से  भी कालतत्व की प्रधानता सर्वोपरि है। इसलिये महाकाली या काली ही समस्त विद्याओं की आदि हैं अर्थात् उनकी विद्यामय विभूतियाँ ही महाविद्याएँ हैं। ऐसा लगता है कि महाकाल की प्रियतमा काली ही अपने दक्षिण और वाम रूपों में दस महाविद्याओं के नाम से विख्यात हुईं। बृहन्नीलतन्त्र में कहा गया है कि रक्त और कृष्णभेद से काली ही दो रूपों में अधिष्ठित हैं। कृष्णा का नाम 'दक्षिणा' तथा रक्तवर्णा का नाम 'सुन्दरी' है।
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साधना के द्वारा जब अहंता, ममता और भेद-बुद्धि का नाश होकर साधक में पूर्ण शिशुत्व उदित हो जाता है तब माँ काली का श्रीविग्रह साधक के समक्ष प्रकट हो जाता है। उस समय भगवती काली की छबि अवर्णनीय होती है। 

    कालिकापुराण में कथा है कि एक बार हिमालय पर अवस्थित मतंग मुनि के आश्रम में जाकर देवों ने महामाया की स्तुति की। स्तुति से प्रसन्न होकर मतंग-वनिता के रूप में भगवती ने देवताओं को दर्शन दिया और पूछा, "तुम लोग किसकी स्तुति कर रहे हो?" उसी समय देवी के शरीर से काले पर्वत के समान वर्ण वाली एक और दिव्य नारी का प्राकट्य हुआ । उस महातेजस्विनी ने स्वयं ही देवों की ओर से उत्तर दिया,"ये लोग मेरा ही स्तवन कर रहे हैं।" वे काजल के समान कृष्णा थीं, इसीलिये उनका नाम काली पड़ा।

     दुर्गासप्तशती के अनुसार एक बार शुम्भ-निशुम्भ के अत्याचार से व्यथित होकर देवताओं ने हिमालय पर जाकर देवीसूक्त के द्वारा देवी जी की स्तुति की। तब गौरी की देह से कौशिकी का प्रादुर्भाव हुआ। कौशिकी के अलग होते ही अम्बा पार्वती का स्वरूप कृष्ण हो गया, जो 'काली' नाम से विख्यात हुईं। माँ काली को नीलरूपा होने से तारा भी कहा जाता है। नारद-पाञ्चरात्र के अनुसार एक बार काली जी के मन में आया कि वे पुनः गौरी हो जायँ। यह सोचकर वे अन्तर्धान हो गयीं। शिवजी ने नारद जी से उनका पता पूछा। नारदजी ने उनसे सुमेरू के उत्तर में देवी के प्रत्यक्ष उपस्थित होने की बात कही। शिवजी की प्रेरणा से नारद जी वहाँ गये। उन्होंने देवी से शिवजी के साथ विवाह का प्रस्ताव रखा। प्रस्ताव सुनकर देवी क्रुद्ध हो गयीं और उनकी देह से एक अन्य षोडशी विग्रह प्रकट हो गया और उससे छायाविग्रह त्रिपुरभैरवी का प्राकट्य हुआ।

ओर जाने इनके बारे मे:-

                    
तान्त्रिक-मार्ग में यद्यपि काली की उपासना दीक्षागम्य है, तथापि अनन्य शरणागति द्वारा इनकी कृपा किसी को भी प्राप्त हो सकती है। मूर्ति, मन्त्र अथवा गुरु द्वारा उपदिष्ट किसी भी आधार पर भक्तिभाव से, मन्त्र-जप, पूजा, होम और पुरश्चरण करने से भगवती काली प्रसन्न हो जाती हैं।
भगवती काली के विभिन्न नामों का कारण -  

     सभी प्राणियों को अपने में समेट लेने के कारण शिव जी का महाकाल नाम है, उन महाकाल को भी अपने में समेट लेने के कारण कालिका देवी का आद्याकाली नाम है। परबह्म की नित्या क्रियाशक्ति का नाम काली है। निष्क्रिय परब्रह्म का सक्रिय रूप ही देवी काली हैं। विश्व के रूप में प्रकट होने वाली क्रिया शक्ति ही काली महाविद्या है। कालिका माँ ही समस्त तत्वों का कारण रूप हैं, ये देवी ही ईश्वर तत्व हैं, भगवती काली ही भगवान शिव का शरीर हैं। बाहर की ओर उन्मुख होते हुए भी यह अपने ऊपर ही स्थित हैं। भगवान शिव और उन पर स्थित उनकी क्रिया शक्ति भगवती काली एक ही तत्व के ही दो नाम हैं। सबका आरम्भ रूप होने से और सबको अपने में समेट लेने के कारण इनका आद्याकाली नाम है। ये अकथनीय होने के कारण काली कहलाती हैं। साकार होने पर भी निराकार होने के कारण इनका काली नाम है। भगवती काली ही कर्ता, हर्ता और पालन करने वाली हैं। निर्वाण तन्त्र के अनुसार दक्षिण दिशा का स्वामी यम काली नाम सुनकर भाग जाता है। काली महाविद्या का नाम लेने वाले अर्थात् कालिका उपासक को यम नरक नहीं ले जा सकता है, इसी कारण इन भगवती का नाम दक्षिणाकाली है। श्री दक्षिणामूर्ति भैरव द्वारा देवी काली की सर्वप्रथम आराधना की गयी इस कारण इनका नाम दक्षिणाकाली विख्यात हुआ। शक्तिसंगम तन्त्र के अनुसार "वरदानेषु चतुरा तेनेयं दक्षिणा स्मृता।" अर्थात् वरदान देने में भगवती बड़ी चतुर हैं इसलिए दक्षिणा कहलाती हैं।

कालिकायै च विद्महे श्मशानवासिन्यै धीमहि तन्नो अघोरा प्रचोदयात्॥  इसका भाव है- मैं भगवती काली का स्मरण करता हूँ और उन श्मशानवासिनी का ही ध्यान करता हूँ। वे अघोरा हमारी चित्तवृत्ति को अपनी ही लीला में लगाये रखें।

काली महाविद्या के मन्त्र
महाकाली जी का ध्यान मन्त्र इस प्रकार है-

खड्गं चक्रगदेषुचाप-परिघाञ्छूलं भुशुण्डीं शिरः
शङ्खं संदधतीं करैस्त्रिनयनां सर्वाङ्ग-भूषावृताम्।
नीलाश्मद्युतिमास्य-पाददशकां सेवे महाकालिकां
यामस्तौत्स्वपिते हरौ कमलजो हन्तुं मधुं कैटभम्॥
  
 अर्थात् भगवान् विष्णु के सो जाने पर मधु-कैटभ को मारने के लिये कमलजन्मा ब्रह्माजी ने जिनका स्तवन किया था, उन महाकाली देवी का मैं सेवन(स्मरण) करता हूँ। वे अपने दस हाथों में खड्ग, चक्र, गदा, बाण, धनुष, परिघ, शूल, भुशुण्डि, मस्तक और शंख धारण करती हैं। उनके तीन नेत्र हैं। वे समस्त अंगों में दिव्य आभूषणों से विभूषित हैं। उनके शरीर की कान्ति नीलमणि के समान है और वे दस मुख एवं दस पैरों से युक्त हैं।

एक बार शुम्भ-निशुम्भ के अत्याचार से व्यथित होकर देवताओं ने हिमालय पर जाकर देवीसूक्त के द्वारा देवी जी की स्तुति की। तब गौरी की देह से कौशिकी का प्रादुर्भाव हुआ। कौशिकी के अलग होते ही अम्बा पार्वती का स्वरूप कृष्ण हो गया, जो 'काली' नाम से विख्यात हुईं। काली को नीलरूपा होने से तारा भी कहा जाता है।

     यूं तो महाकाली के अनेकों मन्त्र हैं। कई मन्त्र क्लिष्ट हैं तो कई गुरु दीक्षा के अभाव में हानि भी पहुंचा सकते हैं। अतः माँ के सरल मन्त्र ही प्रस्तुत कर रहा हूँ। मंत्र जप की महिमा से ध्यान करने की महिमा अधिक है अतः सामान्य आराधकों को माँ काली के ध्यान को अर्थ सहित बार-बार उच्चारण करते हुए माँ काली के स्वरूप का ध्यान करना चाहिए। शनिवार को माँ काली की पूजा विशेष रूप से की जाती है।

॥काली काली महाकाली कालिके परमेश्वरी सर्वानन्द करे देवि नारायणि नमोस्तुते॥
इसका भाव है- हे महाकाली! सभी को आनन्द  देने वाली परमेश्वरी नारायणी, आपको नमस्कार है।

॥ॐ कालिकायै विद्महे श्मशानवासिन्यै धीमहि तन्नोऽघोरा प्रचोदयात्॥ 

यह काली गायत्री मन्त्र है, इसका भाव है- हम भगवती काली को जानते हैं और उन श्मशान में  
निवास करने वाली का ही ध्यान करते हैं। वे (अ)घोरा हमको अपने ज्ञान-ध्यान में प्रवृत्त करें।

यहाँ देवी काली का घोरा या अघोरा दोनो अर्थ हो सकता है। अघोरा अर्थात् जो भयानक रूप वाली न हो। देवी मां दुष्ट जनों को भयानक रूप प्रदर्शित करके भय देने वाली हैं परन्तु भक्त के लिए तो माँ के समान होने से देवी काली का कोई भी रूप सौम्य ही है। ध्यान रहे कि उपरोक्त मन्त्र में तन्नोऽघोरा में ऽ चिह्न प्लुत स्वर के उच्चारण के लिए प्रयुक्त हुआ है। अर्थात् तन्नो में ओ की मात्रा को थोड़ा लम्बा खींचना होगा फिर घोरा बोले। जैसे ओऽम् का उच्चारण होता है। केवल तन्नोघोरा बोलना भी मान्य है।

।।क्रीं।।

     यही 'क्रीं'-कार महाविद्या काली का सरल एकाक्षरी बीजमन्त्र है। इसका अधिकाधिक मानसिक जप करना घोर संकटों से मुक्ति दिलाता है। तोड़ल तन्त्र कहता है कि क्रीं बीज में स्थित क अक्षर धर्म दायक है, र अक्षर कामदायक है। 'ई'कार धनदायक है और 'म' कार मोक्षदायक है। इन सबका एक साथ उच्चारण करना निर्वाण-मोक्ष प्रदान करता है।
एकाक्षरी कालिका मन्त्र पुरश्चरण विधि

सामग्री : शिव मूर्ति चित्र या शिवलिंग, गणेश मूर्ति या चित्र, कालिका मूर्ति/चित्र/यन्त्र, रुद्राक्ष माला, रोली-चन्दन, जल, फूल, धूप-दिया, फल-नैवेद्य ।

(1) आचमन, पवित्रीकरण, आसन शुद्धि करे। जिसका गुरु हो वो गुरु पूजन करे। जिसका गुरु नहीं हो वह अपने सामने रखे शिवलिंग या शिव मूर्ति/चित्र को श्रीदक्षिणामूर्ति शिवजी जानकर और अपना गुरु मानकर पूजा करे -
श्री दक्षिणामूर्ति गुरू ध्यान :- मौन-व्याख्या-प्रकटित परब्रह्म-तत्त्वं युवानं, वर्षिष्ठान्ते-वसदृषि-गणै-रावृतं ब्रह्मनिष्ठैः ।
आचार्येन्द्रं करकलित - चिन्मुद्रमानन्दरूपं , स्वात्मारामं मुदितवदनं श्रीदक्षिणामूर्ति-मीडे ॥
(ब्रह्मनिष्ठ ऋषियों से घिरे युवा गुरु मौन रह कर ब्रह्म ज्ञान प्रदान कर रहे हैं । अपने हाथ की ज्ञान मुद्रा द्वारा उपदेश करते हुए ऐसे आनन्दरूप गुरुओं के गुरु दक्षिणामूर्ति जी को मैं प्रणाम करता हूं ।)
अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया । चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥

अब गुरु पूजा करे - 

ॐ अं नमः शिवाय अं ॐ श्री दक्षिणामूर्ति गुरवे नमः, क्रीं लं पृथ्वी-तत्त्वात्मकं गन्धं अनुकल्पयामि ।  चन्दन चढा दे

ॐ अं नमः शिवाय अं ॐ, श्री दक्षिणामूर्ति गुरवे नमः, क्रीं हं आकाश-तत्त्वात्मकं पुष्पं अनुकल्पयामि। फूल चढा दे

 ॐ अं नमः शिवाय अं ॐ, श्री दक्षिणामूर्ति गुरवे नमः,  क्रीं यं वायु-तत्त्वात्मकं धूपं अनुकल्पयामि। धूप जला दे

ॐ अं नमः शिवाय अं ॐ श्री दक्षिणामूर्ति गुरवे नमः, क्रीं  रं वह्नयात्मकं दीपं अनुकल्पयामि । दीप दिखा दे

ॐ अं नमः शिवाय अं ॐ   श्री दक्षिणामूर्ति गुरवे नमः, क्रीं वं अमृत-तत्त्वात्मकं नैवेद्यं अनुकल्पयामि। नैवेद्य चढा दे

ॐ अं नमः शिवाय अं ॐ,  श्री दक्षिणामूर्ति गुरवे नमः॥ क्रीं सं सर्व-तत्त्वात्मकं सर्वोपचारं मनसा परिकल्प्य समर्पयामि। फूल चढा दे

नमस्कार करके गुरु से श्रीकालिका जप-पूजन की आज्ञा देने की प्रार्थना करें -

अनेकजन्म-संप्राप्त कर्मबन्ध-विदाहिने। आत्मज्ञान-प्रदानेन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥
स्मित-धवल-विकसिताननाब्जं श्रुति-सुलभं वृषभाधिरूढ-गात्रम्। सितजलज-सुशोभित-देहकान्तिं सततमहं दक्षिणामूर्तिमीडे ,
त्रिभुवन-गुरुमागमैक-प्रमाणं त्रिजगत्कारण-सूत्रयोग-मायम्। रविशत-भास्वरमीहित-प्रधानं सततमहं दक्षिणामूर्तिमीडे ।
अखण्ड-मण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम् । तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ,
निरवधि-सुखमिष्ट-दातारमीड्यं नतजन-मनस्ताप-भेदैक-दक्षम् । भव-विपिन-दवाग्नि-नामधेयं सततमहं दक्षिणामूर्तिमीडे ।
ज्ञानशक्ति-समारूढ़ः तत्त्वमाला-विभूषितः । भुक्तिमुक्ति-प्रदाता च तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥
 ॐ अं नमः शिवाय अं ॐ, श्रीगुरो दक्षिणामूर्ते भक्तानुग्रह-कारक। अनुज्ञां देहि भगवन् श्रीकालिका-जपार्चनस्य मे॥

अब गुरु मन्त्र 11 बार जपे : ॐ अं नमः शिवाय अं ॐ 

(2) गणेशजी की मूर्ति/चित्र पर फूल चढाकर ध्यान करे= 

विघ्नेश्वराय वरदाय सुरप्रियाय, लम्बोदराय सकलाय जगत् हिताय। नागाननाय श्रुतियज्ञभूषिताय, गौरीसुताय गणनाथ नमो नमस्ते ॥ वक्रतुण्ड महाकाय सूर्यकोटि समप्रभ। निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा।।
लम्बोदर नमस्तुभ्यं सततं मोदकप्रियं। निर्विघ्न कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा।।

ॐ श्री गणेशाय नमः लं पृथ्वी-तत्त्वात्मकं गन्धं अनुकल्पयामि । चन्दन चढ़ा दे
ॐ श्री गणेशाय नमः हं आकाश-तत्त्वात्मकं पुष्पं अनुकल्पयामि । फूल चढ़ाए
ॐ श्री गणेशाय नमः यं वायु-तत्त्वात्मकं धूपं अनुकल्पयामि। धूप जलाए
 ॐ श्री गणेशाय नमः रं वह्नयात्मकं दीपं अनुकल्पयामि । दीप दिखाए
ॐ श्री गणेशाय नमः वं जल-तत्त्वात्मकं नैवेद्यं अनुकल्पयामि । (फल / बताशा आदि नैवेद्य में रखे )
ॐ श्री गणेशाय नमः शं शक्त्यात्मकं सर्वोपचारं अनुकल्पयामि । फूल चढ़ाए।

अब गणेश जी को नमस्कार करे :
सर्व-विघ्नविनाशनाय सर्व-कल्याण-हेतवे, पार्वती-प्रियपुत्राय श्रीगणेशाय नमो नम: ।। गजानन-म्भूतगणादिसेवितं कपित्थ जम्बू फलचारु-भक्षणम्।
उमासुतं शोक विनाशकारकं नमामि विघ्नेश्वर-पादपंकजम्।

(3) अब हाथ में फूल लेकर बोले - 

ॐ भैरवाय नमः, अतितीक्ष्ण महाकाय कल्पांत दहनोपम, भैरवाय नमस्तुभ्यं अनुज्ञां दातुमर्हसि।
फूल शिवजी को चढा दे। अब इष्टदेवी काली माँ का चित्र/मूर्ति/यन्त्र सामने रखकर उनको प्रणाम करे :-
ॐ जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी। दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु ते॥
ॐ काली महाकाली कालिके परमेश्वरी । सर्वानन्दकरे देवी नारायणि नमोऽस्तुते ।।

(4) पुरश्चरण का संकल्प करे :

ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णु: ॐ तत्सत् श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णुराज्ञया प्रवर्तमानस्य श्रीब्रह्मणोऽह्नि द्वितीय परार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे, अष्टाविंशतितमे कलियुगे, कलिप्रथम चरणे जम्बूद्वीपे भरतखण्डे भारतवर्षे भूप्रेदेशे------प्रदेशे ------मासे --------पक्षे , ----तिथौ, -----वासरे ------गोत्रोत्पन्न ------(नाम) अहं अद्य दिवसात प्रारभ्य पन्चविन्शति दिवस पर्यन्तम् श्रीकालिका देवी प्रीतये एकाक्षरी “क्रीं” मन्त्रस्य पुरश्चरणांतर्गते एक लक्ष जपम् कृत्वा तत्दशांशं होमं, होमस्य दशांशं तर्पणं, तर्पणस्यदशांशं मार्जनं, मार्जनस्य दशांशं ब्राह्मणान् कन्यान् वा सुवासिनीन् वा भोजयिष्ये।

(5) अब “क्रीं” मन्त्र से प्राणायाम करे =

 मन में 4 बार क्रीं जपकर नाक से श्वास अंदर को ले, अब 16 बार मन्त्र जपने तक श्वास को भीतर रोके रखे इसके बाद 8 बार जपते हुए श्वास बाहर निकाले। ये प्राणायाम कुल तीन बार करना है।

(6)अब भूतशुद्धि(शरीर स्थित पंचतत्वों की शुद्धि) करे अर्थात "ॐ हौं" मन्त्र का 11 बार जप करे।

(7) दृष्टिसेतु : नासाग्र अथवा भ्रूमध्य में दृष्टि रखते हुए १० बार ॐ का जप करे। प्रणव के अनाधिकारी औं मन्त्र का १० बार जप करे।

(8) मन्त्र शिखा : श्वास को भीतर लेकर कल्पना करे कि अपने मूलाधार में स्थित कुलकुण्डलिनी शक्ति क्रीं मन्त्र की शिखा है, यह सहस्रार में जा रही है फिर इसको कल्पना द्वारा सहस्रार से वापस मूलाधार में ले आये। इस तरह से कई दिन अभ्यास करते करते सुषुम्ना पथ पर विद्युत की तरह दीर्घाकार तेज प्रतीत होगा।

(9) मन्त्र चैतन्य : "गुरुदेव,  मन्त्र, काली माँ और अन्तरात्मा सब एक ही हैं" यह सोचे फिर “ईं क्रीं ईं” मन्त्र को 11 बार जपे।

(10) माँ काली का कवच  पढ़े -

||नारायण उवाच||
श्रृणु वक्ष्यामि विप्रेन्द्र कवचं परमाद्भुतम्।
नारायणेन यद् दत्तं कृपया शूलिने पुरा॥
त्रिपुरस्य वधे घोरे शिवस्य विजयाय च।
तदेव शूलिना दत्तं पुरा दुर्वाससे मुने॥
दुर्वाससा च यद् दत्तं सुचन्द्राय महात्मने।
अतिगुह्यतरं तत्त्वं सर्वमन्त्रौघविग्रहम्॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं कालिकायै स्वाहा मे पातु मस्तकम्।
क्लीं कपालं सदा पातु ह्रीं ह्रीं ह्रीमिति लोचने॥
ॐ ह्रीं त्रिलोचने स्वाहा नासिकां मे सदावतु।
क्लीं कालिके रक्ष रक्ष स्वाहा दन्तान् सदावतु॥
ह्रीं भद्रकालिके स्वाहा पातुमेऽधरयुग्मकम्।
ॐ ह्रीं ह्रीं क्लीं कालिकायै स्वाहा कण्ठं सदावतु॥
ॐ ह्रीं कालिकायै स्वाहा कर्णयुग्मं सदावतु।
ॐ क्रीं क्रीं क्लीं काल्यै स्वाहा स्कन्धं पातुसदा मम॥
ॐ क्रीं भद्रकाल्यै स्वाहा मम वक्ष: सदावतु।
ॐ क्रीं कालिकायै स्वाहा मम नाभिं सदावतु॥
ॐ ह्रीं कालिकायै स्वाहा मम पृष्ठं सदावतु।
रक्तबीजविनाशिन्यै स्वाहा हस्तौ सदावतु॥
ॐ ह्रीं क्लीं मुण्डमालिन्यै स्वाहा पादौ सदावतु।
ॐ ह्रीं चामुण्डायै स्वाहा सर्वाङ्गं मे सदावतु॥
प्राच्यां पातु महाकाली चाग्नेय्यां रक्तदन्तिका।
दक्षिणे पातु चामुण्डा नैर्ऋत्यां पातु कालिका॥
श्यामा च वारुणे पातु वायव्यां पातु चण्डिका।
उत्तरे विकटास्या चा-प्यैशान्यां साट्टहासिनी॥
पातूर्ध्वं लोलजिह्वा मायाऽऽद्या पात्वध: सदा।
जले स्थले चान्तरिक्षे पातु विश्वप्रसू: सदा॥
इति ते कथितं वत्स-सर्वमन्त्रौघ-विग्रहम्।
सर्वेषां कवचानां च सारभूतं परात्परम्॥
सप्तद्वीपेश्वरो राजा सुचन्द्रोऽस्य प्रसादत:।
कवचस्य प्रसादेन मान्धाता पृथिवीपति:॥
प्रचेता लोमेशश्चैव यत: सिद्धो बभूव हि।
यतो हि योगिनां श्रेष्ठ: सौभरि: पिप्पलायन:॥
यदि स्यात् सिद्धकवच: सर्वसिद्धीश्वरो भवेत्।
महादानानि सर्वाणि तपांसि च व्रतानि च॥
निश्चितं कवचस्यास्य कलां नार्हन्ति षोडशीम्॥
इदं कवचमज्ञात्वा भजेत् कालीं जगत्प्रसूम्।
शतलक्षंप्रजप्तोऽपि न मन्त्र: सिद्धिदायक:॥
श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे तृतीये गणपतिखण्डे नारद-नारायण-संवादे भद्रकालीकवचम् ॐ तत्सत्॥

(11) कुल्लुका : “क्रीं हूं स्त्रीं फट्” मन्त्र को अपने शिखा स्थान पर स्पर्श करके 10 बार जपे।

(12) सेतु : "ॐ" मन्त्र को ह्रदय में हाथ रखकर 10 बार जपे।

(13) महासेतु : “क्रीं” मन्त्र को गले में हाथ रखकर 10 बार जपे।

(14) मुखशोधन : “क्रीं क्रीं क्रीं ॐ ॐ ॐ क्रीं क्रीं क्रीं”  7 बार बोलकर जपे ।

(15) अब मंत्रार्थ की क्रिया करे अर्थात देवी काली का शरीर और मन्त्र अभिन्न है यह चिंतन करें।

(16) निर्वाण : “अं क्रीं ॐ ऐं आं इं ईं उं ऊं ऋं ऋृं लृं लॄं एं ऐं ओं औं अं अः कं खं गं घं ङं चं छं जं झं ञं टं ठं डं ढं णं तं थं दं धं नं पं फं बं भं मं यं रं लं वं शं षं सं हं क्षं ॐ” – १ बार नाभि को छूकर जपे ।

(17) प्राणयोग -“ह्रीं क्रीं ह्रीं” – ७ बार ह्रदय में जपे।

(18) दीपनी -“ॐ क्रीं ॐ” – ७ बार हृदय में जपे।

(19) निंद्रा भंग -“ईं क्रीं ईं” मन्त्र को हृदय में हाथ रखकर १० बार जपे ।

(20) अशौचभंग:- “ॐ क्रीं ॐ” – ७ बार ह्रदय में जपे।

(21) विनियोग : - 

आचमनी में थोड़ा जल लेकर बोले - 

ॐ अस्य श्री काली एकाक्षरी मन्त्रस्य भैरव ऋषिः उष्णिक् छन्द: श्री दक्षिणकालिका देवता कं बीजं ईं शक्ति: रं कीलकम् श्रीदक्षिणकालिका देवी प्रीतये चतुर्वर्ग सिद्धयर्थे जपे विनियोग:
 बोलकर जल छोड़ दे अब न्यास करे, मन्त्र बोलकर सम्बन्धित अंग को छुए :
ऋष्यादिन्यास - श्री महाकाल भैरव ऋषये नम: शिरसि । उष्णिक् छन्दसे नम: मुखे । ॐ श्रीदक्षिण-कालिका देवतायै नमः हृदये। कं बीजाय नम: गुह्ये (फिर हाथ धोए)। ईं शक्तये नम: पादयोः। रं कीलकाय नम: नाभौ। कालिका देवी प्रीतये चतुर्वर्ग सिद्धयर्थे जपे विनियोगाय नम: सर्वांगे।

(22) करन्यास : क्रां अंगुष्ठाभ्यां नम:। क्रीं तर्जनीभ्यां स्वाहा । क्रूं मध्यमाभ्यां वषट्। क्रैं अनामिकाभ्यां हूं। क्रौं कनिष्ठिकाभ्यां वौषट्। क्र: करतल-करपृष्ठाभ्याम्  फट्।

(23) हृदयआदि न्यास : क्रां हृदयाय नम:। क्रीं शिरसे स्वाहा। क्रूं शिखायै वषट्।  क्रैं कवचाय हुम्। क्रौं नेत्रत्रयाय वौषट्। क्र: अस्त्राय फट्।

(24) व्यापक न्यास:- “क्रीं” मन्त्र से 3 बार सिर से लेकर पैर तक पूरे शरीर के अंगों में स्पर्श करे

(25) अब हाथ जोड़कर माँ काली का ध्यान करे =
शवारुढ़ां महाभीमां घोरदंष्ट्रां वरप्रदाम्। हास्य युक्तां त्रिनेत्रां च कपाल कर्तृकाकराम्।
मुक्त केशी ललज्जिह्वां पिबंती रुधिरं मुहु:। चतुर्बाहुयुतां देवीं वराभयकरां स्मरेत्॥
(शव पर खड़ी महाविशालकाय भयानक दिखने वाली, वरदान देने वाली, तीन नेत्र वाली माँ जोर जोर से हंस रही हैं और उनके हाथ में कपाल (नरमुंड ) है | उनके बाल बिखरे हुए और जीभ बाहर निकालकर रुधिर पी रही हैं | चार हाथों वाली माँ का हम स्मरण करते हैं जो भक्तों को वरदान और अभयदान देने वाली हैं|)

(26) माँ काली का पूजन= 

 ॐ क्रीं कालिकायै नमः लं पृथ्वी-तत्त्वात्मकं गन्धं कालिका देवी प्रीतये समर्पयामि । तिलक लगाए
ॐ क्रीं कालिकायै नमः हं आकाश-तत्वात्मकं पुष्पं कालिका देवी प्रीतये  समर्पयामि। फूल चढ़ाये
ॐ क्रीं कालिकायै नमः यं वायु-तत्त्वात्मकं धूपं कालिका देवी प्रीतये आघ्रापयामि। धूप दिखाए
 ॐ क्रीं कालिकायै नमः रं वह्नितत्वात्मकं दीपं कालिका देवी प्रीतये दर्शयामि। दीप दिखाए
 ॐ क्रीं कालिकायै नमः वं जल-तत्त्वात्मकं नैवेद्यं कालिका देवी प्रीतये निवेदयामि। माँ को उत्तम नैवेद्य अर्पित करे
 ॐ क्रीं कालिकायै नमः सं सर्व-तत्त्वात्मकं सर्वोपचाराणि मनसा परिकल्प्य कालिका देवी प्रीतये समर्पयामि। फूल चढा दे

(27)इसके उपरान्त योनि मुद्रा द्वारा क्रीं नमः बोलकर प्रणाम करना चाहिए।

(28) उत्कीलन : देवता की गायत्री १० बार जपे।
“ॐ कालिकायै विद्महे श्मशानवासिन्यै धीमहि तन्नोघोरा प्रचोदयात्।”

(29) जप:- यह मन्त्र एक लाख बार जप करने से सिद्ध होता है अर्थात कुल 1000 मालाएं जप करनी हैं
• सुझाव - 40 माला हर दिन जपे यानि 20 माला दिन में और 20 माला रात को जपे। 20 माला में 36 मिनट लग सकते हैं। इस तरह 4000 बार जप प्रतिदिन हो जाएगा। ऐसा 25 दिनों तक करना है तो (25दिन*40माला=1000 माला) एक लाख जप पूरा हो जाएगा|

(30) पुन: कुल्लुका, सेतु, महासेतु, आशौचभंग का जप :-
महासेतु= “क्रीं” मन्त्र को कंठ में 10 बार जपे
सेतु =“ॐ” मन्त्र को ह्रदय में 10 बार जपे
अशौचभंग= “ॐ क्रीं ॐ” – ७ बार हृदय में जपे
क्रीं से प्राणायाम करे = मन में ४ बार क्रीं जपकर नाक से श्वास अंदर को ले, अब १६ बार मन्त्र जपने तक श्वास को भीतर रोके रखे इसके बाद ८ बार जपते हुए श्वास बाहर निकाले।

(31) जपसमर्पण = 

एक आचमनी जल लेकर निम्न मंत्र पढ़कर सारा मन्त्र जपकर्म देवी के बायें हाथ में अर्पित कर दें -
ॐ गुह्यातिगुह्यगोप्त्री त्वं गृहाणास्मत्कृतं जपम् । सिद्धिर्भवतु मे देवि त्वत्प्रसादात्सुरेश्वरि ॥ श्री

(32) क्षमायाचना
अपराधसहस्राणि क्रियंतेऽहर्निशं मया ।
दासोऽयमिति मां मत्वा क्षमस्व परमेश्वरि ॥१॥
आवाहनं न जानामि न जानामि विसर्जनम् ।
पूजां चैव न जानामि क्षम्यतां परमेश्वरि ॥२॥
मंत्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं सुरेश्वरि ।
यत्पूजितं मया देवि परिपूर्ण तदस्तु मे ॥३॥

शक्राय नमः शक्राय नमः शक्राय नमः - बोलकर आसन के नीचे जल छिड़के और माथे पर लगाए फिर बोले - श्री विष्णवे नमः विष्णवे नमः विष्णवे नमः।

(33) पुरश्चर्या के अन्य अंग : जप तो उपरोक्त प्रकार से कर   ले| जिस दिन सारा जप पूर्ण हो जाए  "क्रीं कालीं नारिकेल बलिं समर्पयामि नमः" बोलकर काली माँ को नारियल तोड़कर सात्विक बलि के रूप में दे। हवन, तर्पण, मार्जन, ब्राह्मण भोजन भी करे -

सुझाव : 

 हवन : "क्रीं स्वाहा" मन्त्र से अग्नि में कुल दस हजार बार हवन घी द्वारा करने को कहा गया है। यानि 25 दिनों तक हर दिन 400 बार आहुति दे।

 तर्पण : "क्रीं नमः कालिकां तर्पयामि स्वाहा" बोलकर रोली-चन्दन-दूध-चीनी-फूल-तिल मिश्रित पानी(सम्भव हो तो गंगाजल) से कुल एक हजार बार कालिका देवी का तर्पण(अर्घ्य द्वारा या आचमनी से जल अर्पण) करें। यानि 25 दिनों तक हर दिन 40 बार तर्पण करें|

मार्जन : "क्रीं कालिका देवीं अभिषिंचामि नमः" बोलकर दूर्वा या कुश द्वारा कुल 100 बार  मार्जन(अपने मस्तक पर जल छिड़कना) करना है।

ब्राह्मण भोजन : 10 व्यक्तियों को भोजन कराए ये ब्राह्मण या सुहागिन औरतें भी हो सकती हैं। छोटी कन्याओं को तो अवश्य खिलाए। दक्षिणा भी देदे।

    यह पूजा तथा मन्त्र जप को किसी के सामने न करे अर्थात गोपनीय रखे। पुरश्चरण काल में ब्रह्मचर्य रखे, किसी भी स्त्री के लिए बुरा व्यवहार न करे इस बात का ध्यान रहे। कुछ ग्रंथों में इसका 2 लाख व 3 लाख बार जप करने को भी कहा गया है। इसलिए एक बार पुरश्चरण हो जाने पर यदि अच्छे स्वप्न आदि शुभ संकेत मिले तो सिद्धि मिलने तक साधक फिर से पुरश्चरण करता जाय। पुरश्चरण के बाद भी इस मन्त्र को हर दिन एक-दो माला जपे तो अच्छा है।

   देवी महाकाली भूत-प्रेत, जादू-टोना, ग्रहों आदि के कारण उपजी हर प्रकार की बाधाएँ हर लेती हैं। अतः शिशु जैसा बनकर भक्ति भाव एवं सच्चे हृदय से काली माँ का ध्यान करते हुए माँ के मंत्रों का मानसिक जप करते रहना चाहिये। काली सहस्रनाम का सावधानीपूर्वक सच्चे हृदय से किया गया पाठ तुरन्त फल देने वाला होता है। इसके अलावा माँ काली के अष्टोत्तरशतनाम, अष्टक, कवच, हृदय आदि बहुत से सुंदर स्तोत्र हैं जिनका महाकाली की प्रीति हेतु पाठ किया जाना उत्तम है।

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